Thursday, July 15, 2010

पागल है, दीवाना है

... मैं तो बेहोश था,
उसकी मुहब्बत में मदहोश था
न होश था दुनिया का, ज़माने का
सिर्फ इल्तिजा थी, कोशिश थी, फिर जुनून
और जुनून तो सिर्फ उसको मनाने का
मदहोशी थी, थी आँखें खुली ज़रूर
पर उनमें न कोई तस्वीर, न साया था
बेहोशी का आलम था, था बहाना
बहाना तो सिर्फ इस बात का
कि दुनिया को मुझे इस नाम से बुलाना था
ये खेल था, हाँ ये खेल था, क़ुदरत का
की, "फैज़" तुझे इस नाम से नवाज़ा जाना था


Thursday, June 18, 2009

बार-2 वही सवाल

कुछ को लगते हैं ज़माने,

तो कुछ मुस्कुरा के चले जाते हैं

ग़लती क्या है उन नादानों की 'फैज़'

जो एक सवाल बार बार दोहराते हैं...

Thursday, June 5, 2008

आँखें

आँखें , जो सब कहती हैं!
आँखें , जो सब सहती है !!
आँखें , जो अपनाती हैं; अपना बनाती हैं!
आँखें , जो हँसाती हैं, यही रुलाती हैं!!
ये सच क्या है, और झूट बताती हैं !
इन्हीं मैं दुःख दिखते हैं, यही खुशियाँ बहाती हैं!!
इन आँखों पे और क्या कहोगे 'फैज़'
जिनमे दुनिया समाती है!!
- फैज़ रिज़वी